अथ दशमोऽयायः
शिल्पीगण आदि ब्राह्मण
सृष्ठयारम्भे ब्राह्मणानां जाति रेका प्रकीर्तता ।I
(ब्राह्मणोत्पत्ति मार्तड । प्र० 2)
अर्थात्-आदि में ब्राह्मणों की एक ही जाति थी। इससे सपष्ट सिद्ध है कि पहले सब ब्राह्मण एक ही प्रकार के थे जोकि ज्ञान और विज्ञान से युक्त थे और वह "ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्" इस श्रुति बचनानुकूल विश्वकर्मा पर ब्राह्मण के मुख से उत्पन्न हुए अथवा मुख के समान सर्वोच्च कहे जाने के कारण जन्म की प्रधानता से ही श्रेष्ठ ब्राह्मण थे। और जो विश्वकर्मा ब्राह्मण तथा “ऋषिविप्रः पुर एता जनानामृभुर्धीर:'' (ऋग्॰ । मंडल 9 सृक्त 87। मंत्र) ऋभु, धीर, धीरा, धीमान, विप्र अथवा ब्राह्मण और ऋषि आदि नामों से प्रसिद्ध सब संसार के नेता तथा पूज्य थे। जिनको राजा आदि उपरोक्त वेदानुकूल ही विश्वकर्मा ब्रह्मा, ऋभु, धीमान विप्र वा ब्राह्मण, देव तथा ऋषि आदि कह कर ही उच्चारण किया करते थे और उनका अधिक से अधिक सम्मान किया करते थे। इस प्रकार विश्वकर्मा कुलोत्पन्न ब्राह्मण ही संसार भर के पूज्य थे। इन ही ब्राह्मणों ने सदैव काल से अपनी ज्ञान विद्या और विज्ञान अर्थात शिल्प विद्या से चहुंओर सुख फैला कर संसार को यथार्थ रूप में स्थित रखा और ये ही "वर्णाना ब्राह्मणीगुरु" इस नीति वचनानुकूल सब वर्ण में आचार्य कहलाते रहे। आदि से लेकर कलियुग के प्रारम्भिक समय तक पूर्ण सभ्यता युक्त रहे। इस विषय के अनेक प्रमाण प्राप्त हैं तथापि हम यहां मद्रास के एक प्रसिद्ध विद्वान ब्राह्मण मि० ए०म० नारयण जी शास्त्री का सन् 1896 के अप्रैल मास के द हिन्दू समाचार पत्र में दिया हुआ एक लेख उदधृत करते हैं जिसमें उक्त महात्मा ने यह बतलाया है कि शिल्पी ब्राह्मण विराट विश्वकर्मा परमेश्वर के मुख से उत्पन्न हुए हैं इससे वह श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं अर्थात स्वयं परमेश्वर ने अपने मुख से ब्राह्मण कहा और उनका धन्धा ऋग्वेद जैसा ही पुरातन है और हिन्दुस्तान के अन्य ब्राह्मणों के आगमन के बहुत पहले से ही उनमें सभ्यता मौजूद थी। (विश्वकर्मा और उसकी सन्तान प्र० 14)
इससे भी यही सिद्ध होता है कि आदि से लेकर बहुत काल पीछे अर्थात द्वापरयुग के अन्त और कलियुग के प्रारम्भिक समय तक शिल्पी ब्राह्मण ही सर्व लोक मान्य रहे। परन्तु कालचक्र प्रवाह से जब निकृष्ट योनियों से उत्पन्न हुए अधम मनुष्यों ने भी तपाचरण करके कर्म की प्रधान्यता से ब्राह्मणत्व की प्राप्त कर लिया। तब उन जन्म प्रधान पहले श्रेष्ठ ब्राह्मणों में और इन कर्म प्रधान बहुत काल पिछे (द्वापर के अंत में) बने हुए साधारण ब्राह्मणों में ऊंच और नीचता के भाव से परस्पर कलह होने लगा और दिन प्रति दिन यह उपद्रव बढ़ता ही रहा।
ब्राह्मणों के दो भेद -
ब्राह्मणानां कुलंद्वेधा पूर्व विभजितं सुरै:
आर्षेय पौरुषेयच जन्म कर्म विशेषतः । ।
(विश्व ब्रह्म पुराण अ० २०१८)
अर्थ - उस समय प्रथम देवों ने ब्राह्मणों के कुलों के दो भाग किये। जो कि जन्म और कर्म की विशेषता के कारण तो आर्षेय और दूसरे पौरुषेय नाम से प्रसिद्ध हुये।
आर्षेयन्तु वसिष्ठादि ह्यमुस्मिन् मुनिसत्तम ।
यद्विश्वकर्मणश्चस्या पुरुषस्यमुखोभ्दवम्।।
पौरुषेयमितिख्यातं पंचगोत्रं महत्कुलम् ।।
(स्कंद पुराण नागर खंड)
अर्थ-जिनमें वसिष्ठादि तो “आर्षेय हैं (जो कि ब्रामण वर्ण पृथक अन्य हीन योनियों द्वारा उत्पन्न हुए और तपाचरण करके कर्म की प्रधानता से ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए है) और दूसरे जो विश्वकर्मा प्रसिद्ध पुरुष हैं। उस ब्रह्म के मुख से पौरुषेय नाम से प्रसिद्ध हुये। उतपन्न महत्वं गता:" इस वाक्य से-
कलियुगे प्रारम्भे च द्वापर युगान्ते तथा ।
वहवोऽपिजन्माधमः कर्म योगेन ब्राह्मणः । ।
अर्थात- द्वापर के अन्त और कलियुग के प्रारम्भिक समय में बहुत से जन्माधम मनुष्य भी कर्म के योग से ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुये हैं।
यथा-
गणाका गर्भ सम्भूतो वसिष्ठश्च महामुनि ।
तपसा ब्राह्मणो जातः संस्कारस्तस्यकारणाम् ।।
जातो व्यासस्तु कैवर्त्या श्वापांक्याश्च पराशर ।
वहवोऽन्यपि विप्रत्वं प्राप्ताये पूर्व मद्विजाः ।।
जो कर्म के योग से ब्राह्मण बने और आदि में वसिष्ठादि ऋषि लोग हुये हैं।
नाम तथा उपाधि करके यह भी संयुक्त हुये हैं इन ही वसिष्ठादि आर्षेय ब्राह्मणों के वंशज अन्य ब्राह्मण हैं हुये। जो "पौरुषेय" ब्राह्मण कहलाये। इनके (मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी और दैवज्ञ) यह पांच नाम हैं, और यह बड़े कुल वाले श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं।
इस प्रकार ब्राह्मणों के आर्षेय और पौरुषेय नामक दो भेद प्रचलित हो गये। इन में से आर्षेय ब्राह्मण तो अपने को बाह्मण अथवा ब्रह्म वंशीय (आज परशुराम वंशी) कहलाने लगे और जो पौरुषेय ब्राह्मण थे वह अपने को विश्वकर्मा अथवा विश्वकर्म वंशीय कहने और कहलाने लगे तथा अपने धीमानादि जो गुण वाचक नाम थे उन से भी अपने को उच्चारण करने और कराने लगे और आश्रेय बाह्मनो के मिश्र, गोड़ादि दशान्तरी नाम प्रसिद्ध हो गये। परन्तु इन दोनों प्रकार के ब्राह्मणों में जो परत्पर का द्वेष चल रहा था। वह फिर भी शान्त न हुआ और जब आर्षेय ब्राह्मणों का पंजा अच्छे प्रकार से जम गया और तपाचरण करके इन्होंने राजा आदि लोगों को अपने पक्ष में कर लिया तो पौरुर्षेय ब्राह्मणों की पुरोहित वृत्ति को स्वयं ले लेने के निमित्त पौरूषेय ब्राह्मणों की राजा आदि लोगों से अनेक बुराइयां करनी आरम्भ कर दी। इतना ही नहीं बल्कि शिल्पी ब्राह्मणों को जो कि आदि काल से संसार भर के पूज्य थे, दुखित करने में आर्षेय ब्राह्मों की ओर से प्रथम व्यास ने ही बल पूर्वक जितना उद्योग किया है उसका विस्तृत वर्णन ही नहीं हो सकता। इस विषय में जो घटनाएं हमें प्राप्त हुई हैं हम उन्हें पाठकों के अवलोकनार्थ उद्धृत करते हैं -
1- आल्फ्रेड एडवर्ड रावर्टस साहब लिखित "विश्वकर्मा और उसकी संतान" नामक ग्रन्थ के प्रकरण पांच का सारांश यह है कि:-
विश्वकर्मा के पुत्र मनु के वंशज जो कि शिल्पी ब्राह्मण थे उन्होंने ईसा के जन्म से 600 वर्ष पहले एक महन्ती (जिसे मन्तोती भी कहते हैं) नगर की रचना की और उसे अपना निवास स्थान तथा राजधानी बनाया। किन्तु वेदव्यास जिसका पुरा नाम कृष्ण द्वैपायन था और जो जन्म से शुद्र था उसने इस नगर के निवासियों में भीतरी कलह उत्पन्न किया और उसने राजा वर्तुलहारी को उसका सामना करने को उभारा। राजा ने किला घेर लिया उस पर हमला किया और कब्जे में कर लिया, और उसे भस्मकर दिया। नगर उजड़ गया और विश्वकर्मा (शिल्पी ब्राह्मण) तितर बितर हो गये, उनका मूलोच्छेदन करने के लिए व्यास ने तरणि नामक भारत के किसी राजा से विश्वकर्माओं (शिल्पी ब्राह्मण) के व्यापार पर कर लेने की प्रेरणा की। शिल्पी ब्राह्मणों ने इस अन्याय को दृढ़ता पूर्वक अस्वीकार किया, क्योंकि उन्होंने पहिले कभी भी टैक्स नहीं दिया था इस व्यवहार से तरणि ने कठोरता धारण की और उन्हें कैद में डाल दिया। इस घटना से कुछ हो कर पड़ौसी 'तजोई पटन्नाकरु' नाम का सुबेदार तरणि के किले पर चढ़ आया और शिल्पकारों को मुक्त कराया। इस युद्ध में तरणि मारा गया। महन्ती नगर का पतन उसके निवासी विश्वकर्माणों की राज सत्ता के लिए घातक सिद्ध हो गया। व्यास की इस कपट लीला से एक नगर का नाश हुआ, और सदियों से चलता हुआ राज्य नष्ट हो गया। इस प्रकार शिल्पी ब्राह्मणों की धार्मिक सत्ता के महत्व का घातक व्यास ही हुआ है।
व्यास द्वारा शिल्पी ब्रह्मणों का पतन
हिन्दी भाषा के विश्वकोष नामक ग्रन्थ में लिखा है कि-चेर राज परिमल के समय तक पवित्र व्रत कर्मादि कार्यों में पंचालर (शिल्पी ब्राह्मण) ही विशेष दक्ष रहे। किन्तु शिल्पी ब्राह्मणों की इस धर्म सत्ता का उच्छेद, वेद व्यास नामक ब्राह्मण ने किया और उनके स्थान में अपने वंशजों को राज पुरोहित पदपर नियुक्त किया। इसी विषय को-
आलफ्रेड एडवर्ड रावर्टस साहब ने स्वरचित "विश्वकर्मा और उसकी सन्तान" नामक ग्रन्थ में स्पष्ठ रूप से लिखा है। जिसका हिन्दी अनुवाद यह है कि:-
विश्वकमाओं (शिल्पी ब्राह्मणों की राज सत्ता को इस प्रकार नष्ट करने में और उनकी धार्मिक सत्ता का भी मूलोच्छेदन करने में ऋषि (व्यास) ने उद्योग किया स्वर्णकार (शिल्पी ब्राह्मण) ही वास्तविक ब्राह्मण होने का दावा करते, वे ही बुद्धिमान होने के कारण राज परिवारों में अध्यात्मिक सलाहकार पुरोहित थे (पुरोहित) थे।
विश्वकर्माओं (शिल्पी ब्राह्मणों) ने तिरास्कार पूर्वक इसका विरोध किया। कलिंग ने जोश में आकर व्यास और उनके पुत्रों को यह पदवी प्रदान की। इसका प्रमाण बहुत गम्भीर हुआ। लोगों ने जमीन जोतना बन्द कर दिया। क्योंकि विश्व ब्राह्मणों ने धार्मिक क्रियायें बन्द कर दी थीं। परन्तु व्यास इस अवसर पर वहां पहुंच गये। उन्होंने राजा से निवेदन किया कि वह घोषणा करदें कि प्रजा में जो विश्व ब्राह्मणों का पक्ष लें उन्हें बायें हाथ और व्यास का पक्ष लें वह दायें हाथ की ओर के अधिकारी होंगे। मद्रास इलाके के महान प्रदेश में हलचल का यही मूल कारण है। इसी समय से विश्वब्राह्मण अर्थात शिल्पी ब्राह्मणों पतन शुरू हुआ और दूसरी जातियों का उत्थान और उन्नति शुरू हुई।
(विश्वकर्मा और उसकी सन्तान । प्रकरण 6)
दूसरा कारण
शिल्पी ब्राह्मणों की गिरावट का दूसरा कारण यवन बादशात का अत्याचार हुवा जिसमें धार्मिक और वैज्ञानिकशिल्पस हितायें आदि पुस्तकें जलाई गईं और सुशिल्पी विद्वानों के हाथ तक भी कटवाए गए।
पुरोहित अथर्व वेदिन (शिल्पी ब्राह्मण) ही हो सकता है।
इस विषय की साक्षिता बहुत से ग्रन्थों में मिलती हैं यहां पर स्थालि पुलाक न्यायानुसार कतिपय प्रमाण उद्धृत करते हैं। यथा-
पुरोहितं तथा थर्व मन्त्र ब्राह्मण पारगम् ।
(मत्स्य पुराण)
अर्थात-जो (शिल्पी अथर्व वेद के मन्त्र तथा ब्राह्मण भाग में पारङ्गत हो वही पुरोहित हो सकता है।
अभिषिक्तोवै मन्त्रैर्मही भुंक्ते स सागरम्।(मार्केण्डेय पुराण)
अर्थात-जिस राजा का (शिल्पी ब्राह्मण द्वारा) अथर्ववेद के मन्त्रों से राज्याभिषेक किया गया हो वह समुद्रों सहित इस सारी पृथ्वी का भोग करता है।
अथर्व परिशिष्ठ, 5, 4, 6 का हिन्दी अर्थ यह है कि-जिस राजा के देश में अथर्व वेद पारंगत (शिल्पी) ब्राह्मण निवास करता हो उसका राज्य उपद्रव रहित होते हुए नित्य वृद्धि पाता है। अतः राजाओं को उचित है कि वे जितेन्द्रिय अथर्व वेद पारङ्गत (शिल्पी) ब्राह्मण का सदैव विशेष दान और सम्मान से सत्कार किया करें।
पौरोहित्य च अथर्व विदैव कार्यम्।
तत्कत कारणां कर्मणां राज भिषेकादिनां तत्रैव विस्तरेणा प्रति पादि तत्वात् ।।
(सायणाचार्य कृत भाष्य, अथर्व संहिता उपोद्धांत)
अर्थात जो पुरोहित्व और अथर्व वेद का कार्य है वह सब शिल्पी ब्राह्मणों का कर्म है क्योंकि राजभिषेक आदि कामों को वही विस्तार से प्रतिपादन कर सकते हैं।
कुलीनम् श्रोत्रियम् भृगवाङ्गिरो विदम् ।
गुरुम् वृणि याद् भूपतिः । ।
(अथर्व पारिशिष्ठ, 3, 1)
अर्थात- उत्तम (विश्वकर्म कलोत्पन्न) आचार्य जो कि शान्तिक और पौष्टिक कर्मों का करने वाला अथर्व वेद का वेता शिल्पी ब्राह्मण) हो उसे राजा अपना गुरु बनावे।
तस्मात् भृगेवङ्गिरो विदम् कुर्य्यात् पुरोहितम् ।
(अथर्व परिशिष्ठ, 3, 3)
अर्थात- इस लिए राजा को चाहिये कि वह अथर्व वेद के वेत्ता शिल्पी ब्राह्मण को ही अपना पुरोहित बतावे ।
पैरराहित्यं शान्तिक पौष्टिकानि राज्ञाम् ।
अथर्व वेदेन कारयेद् ब्राह्मण त्वंच ।।
(विष्णु पुराणे)
अर्थ-राजाओं के पुरोहित का काम शान्ति तथा पुष्टि के कर्म और यज्ञ में ब्रह्मा का कर्त्तव्य अथर्ववेद से करें।
भटटाचार्य जी अथर्ववेद के विषय में कहते हैं कि-
शान्ति पुष्ट्रयर्भि चारार्थी एक ब्रह्मत्विगोश्रयाः ।
क्रियन्तेथर्ववेदेन त्रय्येवात्मीय गोचराः ।।
अर्थ-एक अथर्व वेद का ज्ञाता शिल्पी ब्राह्मण सम्पत्ति आदि की बुद्धि के अर्थ अथर्व वेद के मन्त्रों से शान्तिक और पौष्टिक कर्मों को करें।
(25) याज्ञवल्क्य समृति 11313 में पुरोहित के गुण बताते हुए कहा है कि वह ज्योतिष शास्त्र का जानने वाला सर्व शास्त्रों से समृद्ध दण्ड नीति (शिल्पशास्त्र) तथा अथर्ववेद में निपुण हो ।
त्रय्यां च दण्ड नीत्यां च कुशल स्गात् पुरोहितः ।
अर्थव विहितं कर्म कुर्य्याच्छान्तिक पौष्टिकम् ।।
अर्थ-तीनों वेद व दंड नीति (शिल्प शास्त्र) में कुशल पुरोहित हो अथर्व वेद से प्रतिपादित शान्तिक पौष्टिक कर्मों को करें।
तथा-
पुरोहित मुदितोदिते कुल शीलं षङ्गेवेद दैवेनिमित्ते दण्डनीतियां च
अभि विनीतमापदां दैवमानुषीणाथर्व भिरुपायैश्च प्रति कर्त्तरं कुर्वात् ।
(उद्धृत । कौटिल्य अर्थ शास्त्रे) ईश्वरीय ज्ञान। 2, पृ० 312-317 से )
अर्थ-पुरोहित वह होना जो कि श्रेष्ठ (विश्वकर्मा) के कुल में उत्पन्न हुआ हो, वेद वेदांगों का ज्ञाता हो, देवों तथा मनुष्यों की आपदाओं का हरण अथर्व वेद से करने वाला अर्थात अथर्वदी (शिल्पी) ब्राह्मण हो । इत्यादि प्रकार से विश्वकर्म कुलोत्पन्न अथर्व वेदी शिल्पी ब्राह्मण ही आचार्य पद के अधिकारी हैं।
इति । ।
तथा
विश्वकर्मा च दृष्ट्वैनं बाल सूर्य समं शिशुम् ।
शिल्पिनां प्रबर: प्रादा दूरस्य महात्मनः ।।
(बा० रा० । उत्तर कांड। वर्ग 6)
विश्वकर्म कलेजातस्योपनयतं क्रमागतम् ।
गर्भ वर्ष मैश्वर्य सप्तम्यां ब्रहाण वर्चसम्।।
(स्कंद पुराण नागर खंड अ० 13 पंचाल ब्रा०नि० से उत
अर्थ- विश्वकर्मा के वंश में उत्पन्न हुए बालक
के समान कांति वाले अर्थात सूर्य के समान ज्ञान का प्रकाश करने वाले श्रेष्ठ शिल्पी हुये हैं।
विश्वकर्मा के कुल में उत्पन्न हुए तीव्र बुद्धि बालक का उपनयन संस्कार मनु के कथानुकूल गर्भ से पांचवे वर्ष में ही करा देंगे क्योंकि ऐसे तीव्र बुद्धि बालक को छटे वर्ष में ऐश्वर्य और सातवें वर्ष में ब्रह्म तेज आ जाता है।
तथा
विश्वकर्म सुता होते रथकारास्तु पंचच ।
वैदिके नैव मार्गेण तद्वंश्यानां विशेषतः ।।
गर्भाधानादिक कर्म कर्तव्यं वेद मार्गतः ।
गर्भाधनं निषेकतु तुर्ये पुंसवन किया।।
षट्कर्मा पंच यज्ञांश्च संस्कारा पोडशास्तथा ।
धीमान् विप्रकुलानांच कर्तव्य वेदमार्गतः । ।
अर्थात- अध्यापन पध्ययन आदि पट्कर्म तथा मंत्र महायज्ञ और गर्भाधनानादिक सोलह संस्कार रूप कर्म भीमान अर्थात् शिल्पी ब्राह्मणों में कुल में उत्पन्न हुए पुरुषों को नियत समय पर वेदानुकूल ही करने चाहिये।
विश्वकर्मा कुल श्रेष्ठो धर्मज्ञो वेद पारगः।
शिल्पी ब्राह्मणों का मुख्य वेद
अब शिल्पी ब्राह्मणों का मुख्य वेद कहते हैं सो इस प्रकार जानना कि प्राचीन काल में प्रत्येक ऋषि के नाम पर एक 2 गुरुकुल होता था जिसको चा कहते थे। सब शिल्पी ब्राह्मणों का चरन आथर्विक आङ्गिरस है तथा सब शिल्पी ब्राह्मणों के वेद साधाराणता से (ऋग, यजु, सामादि) सब वेद हैं और विशेष रूप से मुख्य वेद अथर्व है:-
अथर्वणस्योपवेद शिल्पवेदः प्रकीर्ततः ।
तस्मादाथर्वणः प्रोक्ता सर्वेशिल्पिन एवच ।।
(कौशलगम अ० 3)
अर्थ- क्योंकि अथर्ववेद का उपवेद शिल्प वेद है। इस कारण सब शिल्पी ब्राह्मणों का मुख्य वेद अथर्ववेदहैं। इसी को ब्रह्म वेद भी कहते हैं और इसकी शाखा
981 (विश्वकर्म वं० वर्ण व्यवस्था, भाग 2, पृ० 60)
इत्यादि प्रकार से लाहौरी, सरवरिया, रामगढ़िया, मैथिल, गौड, मथुरिया, महूलिया, मालवीय, मागध और कान्यकुब्ज यह दश नाम विश्वकर्म वंशीय शिल्पी ब्राह्मणों के देशांतरी हैं। इनमें से मागध, महूलिया और मालवीय यह तीनों दक्षिणी आचार्य के भेद हैं और शेष सब रामगढ़ियों की तरह धीमान ब्राह्मण के भेद हैं।
इस प्रकार शिल्पी ब्राह्मणों के यह पृथक-पृथक तीस नाम तथा भेद हुये, संक्षेप से जानना।
तात्पर्य यह है कि:-
जातं पंच ब्रह्म कुलं संततौ विश्व कर्मणः ।
मनु र्मयस्तथा त्वष्टा शिल्पी विश्वज्ञ एवच।।
अर्थात-आदि में विश्वकर्म वंशीय शिल्पी ब्राह्मणों के पांच आचार्य कुलों की स्थापना हुई है। जिनके नाम मनुकुल, मयकुल, त्वष्ठाकुल, शिल्पीकुल और विश्वज्ञ (दैवज्ञ) कुल हुये हैं।
जिनमें से मनुकुल के स्नातक मनु नाम से प्रसिद्ध हुए हैं। मयकुल के मय नाम से, त्वष्टा कुल के त्वष्टा नाम से शिल्पी कुल के शिल्पी (तक्षा) नाम से और दैवज्ञ कुल के तक्षा अर्थात दवैज्ञ नाम से ही विख्यात हुए हैं। जिनमें से-
अर्थ-मनु लोगों का लोह सम्बन्धी शिल्प हुआ। मय लोगों का काष्ट सम्बन्धी शिल्प हुआ, त्वष्टा लोगों का ताम्रादि धातु सम्बन्धी शिल्प हुआ, शिल्पी लोगों का पत्थर सम्बन्धी शिल्प हुआ और तक्षा अथवा दैवज्ञ लोगों का स्वर्णादि रतन सम्बन्धी शिल्प हुआ। इन पांचों कुलों के स्नातकों के यही पांच प्रकार के शिल्पकर्म हुए। इन पांचों शिल्पों के करने वाले यह सब शिल्पी गण एक रूप अर्थात एक जाति में संयुक्त और यज्ञादि समस्त शुभ कर्मों में कुशल हुए हैं।
एवं पूर्व जाति रेका पोरुषेयस्य कीर्तिता ।
धीमान् आचार्य भेदेन पुनः सा द्विविधिऽभवत् ।।
एवं सादशधा भिन्ना तेषां नामानि में श्रृणु ।
पंच धी मन्तः वै जाता आचार्याश्च तथा विधाः । ।
धीमन्त जांगड़ाश्चो पाध्याया ककुहासास्तथा ।
टांका पंच धीमन्तः ख्याः विंध्यस्योत्तर वासिनः । ।
विश्व ब्राह्मणा आचार्या कमलारा पंचालराः ।
तरंचा पंचऽचर्याख्यः विंध्य दक्षिण वासिनः । ।
कार्यस्याल्प विशेषेण देश भेदेना सा पुनः ।
बहु विधास्तु शिल्पिनः विप्रा जाता ततोऽभवन् ।।
अर्थ- इस प्रकार पौरुषेय अर्थात् शिल्पी ब्राह्मणों की पहिले एक ही जाति थी अर्थात यह सब एक ही प्रकार के ब्राह्मण थे। फिर यह धीमान और आचार्य के नाम से इन दो भेदों में विभक्त हुए (क्योंकि विश्वकर्मा की धीमान और आचार्य नाम की उपाधि भी थी। देखों अ० पृ० 43 पंक्ति 17 व 19 में विश्वकर्मा को धीमान और देवों का आचार्य कहा गया है।
फिर पांच प्रकार के धीमान् और पांच प्रकार के आचार्य ऐसे इनके दस नाम हो गये । जिनमें से धीमान् जांगिड़, उपाध्याय (ओझा), ककुहास और टांक यह
तथा विश्वब्राह्मण, आचाग्र, कमलार, पञ्वालर और तरञ्च यह पांच विध्याचल के दक्षिण देशों में निवास करते हैं और पंच आचार्य कहे जाते हैं (कारण यह है कि विश्वकर्मा ने अपने वंशजों को मुख्य पांच प्रकार के शिल्पी का उपदेश किया है। उन्हीं के उपरोक्त दस नाम प्रचलित हुए है, जिनमें से धीमान् जांगिड़, ओझा, ककुहास और टांक यह पञ्चाल ब्राह्मण विध्याचल के उत्तर देशों में रहे और कमलार, आचार्य, विश्वब्राह्मण, पञ्चालर और तरञ्च यह पञ्चाल ब्राह्मण विंध्याचल के दक्षिण देशों में रहे फिर कार्य की न्यूनाधिक्यता, नामुपाधि, शाखा तथा देश-भेद से वह शिल्पी ब्राह्मणों के अनेक भेद प्रचलित हुए हैं। वर्ना वैसे तो मूल से समस्त शिल्पी ब्राह्मणों की एक ही जाति है जैसा कि शिल्पशास्त्र में लिखा है कि:-
विश्वकर्म कुलोद्भूता एक एव सहोदराः
एकजातिस्तु सर्वेषामेक धर्म प्रवर्धिता । ।
अर्थात-विश्वकर्मा के वंश में जो पौरुषेय शिल्पी ब्राह्मण उत्पन्न हुये हैं वे सब परस्पर एक ही सहोदर भाई है। अर्थांत इन सब की एक ही (पोरुषेय) जाति और सब का एक ही वैदिक धर्म है।
अतः इस भाव से सब परस्पर मिल के अपने पूर्वं जैसे शिल्पीय गुरुकुलों की स्थापना तथा विद्यादि सदगुणों को धारण करो जिससे स्वजाति और देश की उन्नति हो ।